समर्थन और प्रतिरोध की निर्णायक रेखा

भारत की विदेश नीति
कश्मीर के मसले को लेकर पाकिस्तान के साथ बंटवारे के तुरंत बाद ही संघर्ष छिड़ गया था। पाकिस्तान ने 1965 में गुजरात के कच्छ के रण में सैनिक हमला किया, उसके बाद जम्मू-कश्मीर में उसने बड़े पैमाने पर हमला किया। पाकिस्तान के नेताओं को उम्मीद थी कि जम्मू-कश्मीर की जनता उनका समर्थन करेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ और पाकिस्तान को स्थानीय समर्थन नहीं मिल सका।
- इसी बीच कश्मीर के मोर्चे पर पाकिस्तानी सेना की बढ़त को रोकने के लिए प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जवाबी हमला करने के आदेश दिए।
- यह युद्ध फिर से भारत के पक्ष में रहा, और संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप से इस लड़ाई का अंत हुआ।
- सोवियत संघ की मध्यस्थता में दोनों देशों के बीच ( भारत से शास्त्री और पाकिस्तान से अयूब खान) जनवरी 1966 में ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर हुए।
ताशकंद समझौते के कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान निम्नलिखित थे:
- कश्मीर के हाजी पीर दर्रा और अन्य रणनीतिक लाभ जैसे महत्वपूर्ण जगहों से हटने के लिए भारत के कश्मीर विवाद का अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता द्वारा पाकिस्तान को हटाया जाना ।
- युद्ध से पहले की स्थिति के लिए दोनों पक्षों द्वारा बलों की वापसी।
- युद्ध के कैदियों का क्रमबद्ध स्थानांतरण|
- राजनयिक संबंधों की बहाली|
- हालाँकि भारत ने युद्ध जीत लिया, लेकिन इस युद्ध से भारत की कठिन आर्थिक स्थिति पर और ज्यादा बोझ पड़ा।
- इस युद्ध के दौरान, देश में खाद्यान्न की कमी थी। इसलिए, प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने लोकप्रिय नारा दिया- जय जवान, जय किसान जिसका अर्थ है कि हमारे जवान (सैनिक) सीमाओं की रक्षा करेंगे और हमारे किसान (जवान) खाद्यान्न उत्पादन में भारत को आत्मनिर्भर समर्थन और प्रतिरोध की निर्णायक रेखा बनाएंगे।
- वर्ष 1970 में पाकिस्तान के सामने एक गहरा अंदरूनी संकट आ खड़ा हुआ पाकिस्तान के पहले आम चुनाव में खंडित जनादेश आया।
- ज़ुल्फ़िकार भुट्टो की सत्तारूढ़ पार्टी पश्चिम पाकिस्तान में विजेता के रूप में उभरी जबकि उनके पूर्वी हिस्से में शेख मुजीब-उर रहमान की अवनी लीग ने बड़े अंतर से सीटें जीतीं।
- हालांकि, मजबूत और शक्तिशाली पश्चिमी प्रतिष्ठान ने लोकतांत्रिक फैसले की अनदेखी की और संघ की मांग को स्वीकार नहीं किया।
- पाक सेना ने उनकी मांगों और फैसले का सकारात्मक जवाब देने के बजाय रहमान को गिरफ्तार कर लिया और क्रूर आतंकी गतिविधियों को अंजाम दिया और उनकी आवाज को बेरहमी से दबा दिया।
- इस खतरे को स्थायी रूप से समाप्त करने के लिए, पूर्वी पाक के लोगों ने पाकिस्तान से बांग्लादेश के मुक्ति संघर्ष की शुरुआत की।
- पूर्वी पाक के शरणार्थियों के भारी संख्या में आने के कारण, भारत ने गंभीर विचार-विमर्श किया और लोगों के मुक्त संग्राम को नैतिक रूप से समर्थन किया, जिस कारण पश्चिमी पाकिस्तान ने आरोप लगाया कि भारत उसे तोड़ने की साजिश कर रहा है|
- लोगों को मुक्ति आंदोलन को रोकने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन से पश्चिमी पाकिस्तान को समर्थन मिला था।
- अमेरिकी और चीनी समर्थित पाक के हमलों से अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए, भारत ने सोवियत संघ के साथ 20 साल की शांति और मित्रता की संधि पर हस्ताक्षर किए।
- बहुत कूटनीतिक विचार – विमर्श के बाद भी ठोस परिणाम हासिल नहीं किया जा सका और दिसंबर 1971 में पश्चिमी और पूर्वी दोनों मोर्चे पर पूर्णव्यापी युद्ध छिड़ गया।
- भारत की बाहरी खुफिया एजेंसी R&AW ने इस युद्ध में निर्णायक भूमिका निभाई। इसने मुक्तिवाहिनी का गठन कर इसे संगठित किया(इसमें पाकिस्तान की अत्याचार से पीड़ित बांग्लादेश की स्थानीय आबादी और बांग्लादेश से संबंधित पाकिस्तानी सेना के पूर्व सैनिक शामिल हैं)।
- “मुक्ति बाहिनी” के रूप में स्थानीय आबादी के समर्थन से भारतीय सेना तेजी से आगे बढ़ी और पाकिस्तानी सैनिकों को 10 दिनों के अंदर आत्मसमर्पण करना पड़ा।
- इस जीत को ‘विजय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इस संकट के समय इंदिरा गांधी ने बहुत साहस और सावधानी के साथ काम किया। यह इंदिरा गाँधी और भारत के लिये सब से गौर्वान्वित क्षण था।
- बांग्लादेश के स्वतंत्र देश के रूप में उदय के साथ, भारत ने एकतरफा युद्ध विराम घोषित कर दिया।
- बाद में 3 जुलाई, 1972 को इंदिरा गांधी और जुल्फिकार भुट्टो के बीच शिमला समझौते पर हस्ताक्षर हुए,जिससे राष्ट्रों के बीच अमन एवं शांति की बहाली हुई|
- इसका उद्देश्य दो राष्ट्रों के मध्य स्थाई शांति, मित्रता और सहयोग स्थापित करना था। इस समझौते के तहत दोनों देशों ने संघर्ष और विवाद को पूरी तरह से समाप्त करने का प्रयास करेंगे, जिसे दोनों देशों ने अतीत में अनुभव किया था। इस समझौते में मार्गदर्शक सिद्धांतों का एक समुच्चय है,जो दोनों देशों के पारस्परिक सहयोग पर आधारित थे|
- एक दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान|
- एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना|
- राजनीतिक स्वतंत्रता|
- संप्रभुता और समानता|
- द्विपक्षीय दृष्टिकोण के माध्यम से शांतिपूर्ण समाधान|
- लोगों के परस्पर संपर्कों पर विशेष ध्यान देने के साथ एक सहकारी संबंध की नींव बनाना।
- जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा को बनाए रखना, जो स्थाई शांति का प्रमुख उपाय है।
1971 के युद्ध के बाद, पाकिस्तानी सेना ने कभी भी भारतीय सेना से प्रत्यक्ष रूप से युद्ध नहीं किया बल्कि अपनी गुप्त एजेंसियो द्वारा प्रशिक्षित किए गए आतंकवादियों को भेज कर जम्मू कश्मीर और भारत में आतंक फैलाकर दहशत का वातावरण उत्पन्न करने के लिए अप्रत्यक्ष युद्ध प्रारंभ किया ।
सार्वजनिक क्षेत्र को बेच कर जुटायी गयी पूंजी देश की गिरती अर्थव्यवस्था को कहां तक सहारा देगी
क्या तबाह कर देने वाली आर्थिक नीतियों के तूफान के बीच पब्लिक सेक्टर की रक्षा की जा सकती है? कमजोर ट्रेड यूनियन, खुदगर्ज मध्यवर्ग और साख के संकट से जूझ रहा विपक्ष. देश की सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करने में असमर्थ हालात को और भी गंभीर बना रहे हैं. केंद्र सरकार को अर्थव्यवस्था की कंगाली से ज्यादा फिक्र सरकारी क्षेत्र के प्रतिष्ठानों के निजीकरण की है.
कॉरपोरेट हितों के अनुकूल उठाए गए कदमों ने चुनौतियों को गहरा बना दिया है. कोल सेक्टर हो या रेल या बैंक सेक्टर. गैस या रक्षा उत्पदन. सबके दरवाजे निजीकरण के लिए खोल दिए गए हैं. कोविड महामारी के पहले से ही देश में बेरोजगारी है. आर्थिक क्षेत्र में सुस्ती है. आजादी के बाद के सबसे बड़ी आर्थिक तबाही की तुलना 1930 की महामंदी से की जा रही है. ऐसे में सार्वजनिक क्षेत्रों को बेच कर जुटायी गयी पूंजी देश को इस कंगाली से किस तरह बाहर करेगी. इसका कोई रोडमैप स्पष्ट नहीं है. तय है इसकी कीमत सार्वजनिक क्षेत्र को चुकानी पड़ रही है.
पब्लिक सेक्टर की तबाही न केवल एक बड़े संकट के दरवाजे खोल चुकी है, बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था की धडकन कोमा की ओर सरक रही है. यह वही पब्लिक सेक्टर है, जिसने दुनिया की भारी आर्थिक मंदी के बीच भी भारत को बड़े आर्थिक संकट से कई बार बचाया है. जब कभी दुनिया की ताकतों ने भारत को आर्थिक तौर पर कमजोर करना चाहा, पब्लिक सेक्टर देश की गरिमा और रोजगार की रक्षा करने में कारगर साबित हुआ.
जिन्हें रत्न कह कर पुकारा जाना लगा है, उन रत्नों की हिफाजत किस तरह संभव है. ट्रेड यूनियनों के विरोध के स्वर उठे हैं. लेकिन उन्हें मध्यवर्ग का समर्थन नहीं दिख रहा है. भारत के विकास में पब्लिक सेक्टर की बड़ी भूमिका को हर जानकार स्वीकार करता है. लेकिन भारत में मजूदर आंदोलनों की साख की कमी का संकट है. प्रतिरोध की आवाज कमजोर पड़ चुकी है. बहुत संभव है कि पब्लिक सेक्टर 2022 तक पूरी तरह सरकार के नियंत्रण से बाहर हो जाये.
भारतीय राजनीति में जिस तरह धर्म समूहों और जाति समूहों की निर्णायक भमिका है, उसका असर मजदूरों पर भी है. लेकिन फिलहाल, जिस तरह कालीदास जिस डाल पर बैठे थे उसे ही काट रहे थे, कुछ वैसी ही हालत मजदूर आंदोलनों की भी है. पिछले छह सालों में हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि चाहे मध्यवर्ग हो या मजूदर तबका, वे अपने हितों के बजाय अंधराष्ट्रवादी प्रचार का शिकार हो गए हैं.
भारत के मजदूर आंदोलनों और मध्यवर्ग के आंदोलनों ने अनेक बड़े राजनीतिक बदलावों में केंद्रीय भूमिका निभायी है. चाहे गैर-कांग्रेसवाद के राजनीतिक बदलाव हों या जय प्रकाश आंदोलन. हाल में लोकपाल आंदोलन ने भी इसी तबके के समर्थन से भाजपा की राह को आसान बनाया. मजूदरों ने अपने संघर्षो के दम पर न केवल भारत में राष्ट्रीयकरण का सपना सच करवाया, बल्कि अनेक कानूनों के माध्यम से मजदूरों के हकों का विस्तार किया.
2004 में बाजपेयी सरकार की शाइनिंग इंडिया के गुब्बारे की हवा निकालने में भी संगठित मजदूरों की बड़ी भूमिका थी. बाजपेयी सरकार की डिसइंवेंस्टमेंट पॉलिसी के विरोध में मजूदरों की बड़ी भूमिका रही. और यही उनकी सरकार की हार का बड़ा कारण बना था. उसी भारत के मजूदर और उनके संगठन आज इतने लाचार क्यों दिख रहे हैं?
Russia Ukraine War: यूक्रेन से जंग क्यों हार रहा है रूस, कौन सी वजहें हैं जिम्मेदार, दुनिया पर क्या पड़ा युद्ध का असर?
डीएनए हिंदी: दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी महाशक्ति रूस (Russia) बेहद कमजोर देश समर्थन और प्रतिरोध की निर्णायक रेखा यूक्रेन (Ukraine) से युद्ध के 200 से ज्यादा दिन बीत जाने के बाद भी नहीं जीत सका है. रूस के हमले में यूक्रेन तबाह हो चुका है, आधी आबादी पलायन कर चुकी है लेकिन सेना ने घुटने नहीं टेके हैं. यूक्रेन, रूस के लिए आज भी अजेय बना हुआ है. रूसी सेना के पलायन से लग रहा है कि यूक्रेन जंग जीत रहा है.
24 फरवरी को जब दोनों देशों के बीच जंग की शुरुआत हुई थी तब किसी ने सोचा नहीं था कि यह युद्ध इतने दिनों तक खिंचेगा. सबको उम्मीद है थी कि यूक्रेन ज्यादा से ज्यादा 10 दिनों के अंदर सरेंडर कर देगा. यूक्रेन अभेद्य दुर्ग की तरह खड़ा रहा. कीव से लेकर खारकीव तक रूसी तोपों ने शहरों को तबाह कर दिया लेकिन जीत हासिल नहीं हुई. प्रतिरोध के स्वर कमजोर नहीं पड़े.
पश्चिमी देशों की खुफिया एजेंसियां अब दावा कर रही हैं कि इस युद्ध में रूस को गंभीर सैन्य और आर्थिक क्षति पहुंची है. रूसी हथियार बुरी तरह तबाह हुए हैं और व्लादिमीर पुतिन के महत्वाकांक्षी अभियान का हासिल कुछ नहीं हुआ है.
रूसी सेना को उल्टा पड़ा दांव, खुद हार रही है जंग
यूक्रेन का दावा है कि जो अनुमान जताए जा रहे हैं उससे कहीं ज्यादा तबाही रूस ने झेली है. हजारों सैनिक मारे गए हैं वहीं रूस के हथियारों की भी भीषण बर्बादी हुई है. यूक्रेन-रूस युद्ध के दौरान रूसी सेना के कम से कम 10 जनरल मारे गए हैं. अमेरिकी रक्षा विभाग के मुताबिक यूक्रेन वॉर में रूस के 80,000 सैनिक या तो मार दिए गए हैं या गंभीर रूप से घायल हो गए हैं.
यूक्रेन से जंग में तबाह हो गई रूस की सेना
दुनिया भर में सैन्य उपकरणों के नुकसान पर नज़र रखने वाली एक ओपन सोर्स साइट ओरिक्स ने दावा किय है कि रूस-यूक्रेन वॉर में करीब 5,887 रूसी वाहनों और सैन्य उपकरण तबाह हुए हैं. ये या तो क्षतिग्रस्त हो गए हैं, या यूक्रेनी सेना के कब्जे में आ गए हैं.
ओरिक्स की रिपोर्ट के मुताबिक रूस के 1,029 टैंक लापता हैं. 637 टैंक नष्ट हो गए हैं. 43 टैंक क्षतिग्रस्त हैं. 51 टैंकों को छोड़कर रूसी सेना चली गई है. 299 टैंक यूक्रेनी सैनिकों के कब्जे में हैं. यूक्रेन के समर्थन और प्रतिरोध की निर्णायक रेखा सुरक्षाबलों का दावा है कि रूस पहले ही 2,122 टैंक खो चुका है. रूस ने अभी तक य नहीं बताया है कि उसका कितना नुकसान नहीं हुआ है.
यूक्रेन छोड़कर भागने लगी है रूसी सेना
रूसी सेना को जंग में अब तक कुछ भी हासिल नहीं हुआ है. जहां कब्जा जमाते हैं, यूक्रेनी सेना दोबारा उस पर कब्जा जमा लेती है. यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की ने भी यह कह है कि रूसी सेना उनके देश के जवाबी हमले से भागकर एक अच्छा निर्णय ले रही है. यूक्रेनी सेना का दावा है कि इस युद्ध को वे जीत चुके हैं. उत्तर-पूर्व यूक्रेन में रूसी सेना के खिलाफ जवाबी कार्रवाई में कीव को बड़ी सफलता मिली है. यूक्रेनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ओलेह निकोलेंको ने बताया कि यूक्रेनी सैनिकों ने पूर्वी यूक्रेन के कुपियांस्क शहर को फिर से अपने नियंत्रण में ले लिया है.
निकोलेंको ने एक तस्वीर ट्वीट की है, जिसमें यूक्रेन की 92वीं सेपरेट मैकेनाइज्ड बटालियन के सैनिकों को वहां दिखाया गया है. रूस के रक्षा मंत्रालय ने शनिवार को घोषणा की कि वह यूक्रेन के पूर्वी खारकीव क्षेत्र के दो क्षेत्रों से सैनिकों को वापस बुला रहा है. रूसी रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता इगोर कोनाशेनकोव ने कहा कि बलाकलिया और इजियम क्षेत्रों से पूर्वी दोनेत्स्क क्षेत्र में सैनिकों को फिर से इकट्ठा किया जाएगा.
क्या हार से परेशान रूस करेगा बमबारी?
महाशक्ति होने के बाद भी मिल रही लगातार हार से रूस बौखलाहट में है. ऐसी आशंका जताई जा रही है कि अब रूस यूक्रेन पर दोबारा भीषण बमबारी शुरू कर सकता है. रूसी सेना ने एक दिन में यूक्रेन के सूमी ओब्लास्ट के पांच गांवों पर बमबारी की है. सुमी ओब्लास्ट सैन्य प्रशासन के प्रमुख दिमित्रो झीवित्स्की ने कहा कि इन हमलों में कोई हताहत नहीं हुआ है हालांकि कुछ इमारतों को नुकसान जरूर पहुंचा है. दूसरी तरफ रूसी सेना ने मायकोलियाव शहर पर बमबारी की है, जिसमें 9 लोग घायल हो गए हैं और कई इमारतें भी क्षतिग्रस्त हो गई हैं. आने वाले दिनों में ये हमले और तेज हो सकते हैं.
क्या अमेरिका की वजह से यूक्रेन मजबूत रहा यूक्रेन का हौसला?
रूस-यूक्रेन युद्ध में रूस वैश्विक तौर पर अलग-थलग पड़ गया है. पश्चिमी देश एकजुट होकर यूक्रेन का साथ दे रहे हैं. नाटो देश मिलकर हथियार दे रहे हैं. कई यूरोपीय देशों ने यूक्रेन को बड़ी मात्रा में सैन्य हथियार और आर्थिक मदद दी है. कहीं से तोप, कहीं से बम तो कहीं से एयर डिफेंस सिस्टम यूक्रेन को हमेशा मिलता रहा है. अमेरिका खुलकर यूक्रेन के साथ हो गया है. ऐसे में यूक्रेन का अजेय होना असंभव नहीं है. रूस इसी वजह से भी हार का सामना कर रहा है.
गैस प्राइस और दूसरी वजहें कितनी जिम्मेदार?
रूस पश्चिमी देशों को गैस सप्लाई नहीं दे रहा है. गैस की सप्लाई से अर्जित धन रूस की अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा है. रूस दुनिया भर में नैचुरल गैस का सबसे बड़ा निर्यातक है रूस-यूक्रेन वॉर से पहले यूरोपीय देश करीब 40 फीसदी गैस रूस से ही खरीदते थे. वहीं यूरोप को 30 फीसदी तेल की सप्लाई भी रूस से होती थी. इन उत्पादों की सप्लाई बंद होने से रूस को घाटा लगा है. रूस तमाम आर्थिक प्रतिबंध भी यूक्रेन वॉर की वजह से झेल रहा है. ऐसे में अब रूस को लगने लगा है कि वैश्विक पाबंदियां अगर लगातार बढ़ती रहीं तो अर्थव्यवस्था तबाह हो जाएगी. रूसी सैनिकों को पीछे हटने की एक वजह यह भी है.
कितने दिन तक और जारी रहेगी महंगाई?
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) ने अपनी एक रिपोर्ट कहा है कि दुनिया में बढ़ रही महंगाई के पीछे रूस-यूक्रेन युद्ध भी जिम्मेदार है. युद्ध के बाद खाद्य उत्पाद महंगे हो गए हैं. फूड और एनर्जी प्रोडक्ट्स के दाम में हुए इजाफे की वजह से दुनियाभर में करीब 7.1 करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे चले गए हैं. यह युद्ध अब धीरे-धीरे खत्म होता नजर आ रहा है. इस युद्ध के परिणाम बेहद भयावह साबित हुए हैं. दुनिया में इस युद्ध का असर कब तक रहेगा, यह भविष्य ही बताएगा.
देश-दुनिया की ताज़ा खबरों Latest News पर अलग नज़रिया, अब हिंदी में Hindi News पढ़ने के लिए फ़ॉलो करें डीएनए हिंदी को गूगल, फ़ेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर.
भारत की विदेश नीति
कश्मीर के मसले को लेकर पाकिस्तान के साथ बंटवारे के तुरंत बाद ही संघर्ष छिड़ गया था। पाकिस्तान ने 1965 में गुजरात के कच्छ के रण में सैनिक हमला किया, उसके बाद जम्मू-कश्मीर में उसने बड़े पैमाने पर हमला किया। पाकिस्तान के नेताओं को उम्मीद थी कि जम्मू-कश्मीर की जनता उनका समर्थन करेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ और पाकिस्तान को स्थानीय समर्थन नहीं मिल सका।
- इसी बीच कश्मीर के मोर्चे पर पाकिस्तानी सेना की बढ़त को रोकने के लिए प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जवाबी हमला करने के आदेश दिए।
- यह युद्ध फिर से भारत के पक्ष में रहा, और संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप से इस लड़ाई का अंत हुआ।
- सोवियत संघ की मध्यस्थता में दोनों देशों के बीच ( भारत से शास्त्री और पाकिस्तान से अयूब खान) जनवरी 1966 में ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर हुए।
ताशकंद समझौते के कुछ समर्थन और प्रतिरोध की निर्णायक रेखा महत्वपूर्ण प्रावधान निम्नलिखित थे:
- कश्मीर के हाजी पीर दर्रा और अन्य रणनीतिक लाभ जैसे महत्वपूर्ण जगहों से हटने के लिए भारत के कश्मीर विवाद का अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता द्वारा पाकिस्तान को हटाया जाना ।
- युद्ध से पहले की स्थिति के लिए दोनों पक्षों द्वारा बलों की वापसी।
- युद्ध के कैदियों का क्रमबद्ध स्थानांतरण|
- राजनयिक संबंधों की बहाली|
- हालाँकि भारत ने युद्ध जीत लिया, लेकिन इस युद्ध से भारत की कठिन आर्थिक स्थिति पर और ज्यादा बोझ पड़ा।
- इस युद्ध के दौरान, देश में खाद्यान्न की कमी थी। इसलिए, प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने लोकप्रिय नारा दिया- जय जवान, जय किसान जिसका अर्थ है कि हमारे जवान (सैनिक) सीमाओं की रक्षा करेंगे और हमारे किसान (जवान) खाद्यान्न उत्पादन में भारत को आत्मनिर्भर बनाएंगे।
- वर्ष 1970 में पाकिस्तान के सामने एक गहरा अंदरूनी समर्थन और प्रतिरोध की निर्णायक रेखा संकट आ खड़ा हुआ पाकिस्तान के पहले आम चुनाव में खंडित जनादेश आया।
- ज़ुल्फ़िकार भुट्टो की सत्तारूढ़ पार्टी पश्चिम पाकिस्तान में विजेता के रूप में उभरी जबकि उनके पूर्वी हिस्से में शेख मुजीब-उर रहमान की अवनी लीग ने बड़े अंतर से सीटें जीतीं।
- हालांकि, मजबूत और शक्तिशाली पश्चिमी प्रतिष्ठान ने लोकतांत्रिक फैसले की अनदेखी की और संघ की मांग को स्वीकार नहीं किया।
- पाक सेना ने उनकी मांगों और फैसले का सकारात्मक जवाब देने के बजाय रहमान को गिरफ्तार कर लिया और क्रूर आतंकी गतिविधियों को अंजाम दिया और उनकी आवाज को बेरहमी से दबा दिया।
- इस खतरे को स्थायी समर्थन और प्रतिरोध की निर्णायक रेखा रूप से समाप्त करने के लिए, पूर्वी पाक के लोगों ने पाकिस्तान से बांग्लादेश के मुक्ति संघर्ष की शुरुआत की।
- पूर्वी पाक के शरणार्थियों के भारी संख्या में आने के कारण, भारत ने गंभीर विचार-विमर्श किया और लोगों के मुक्त संग्राम को नैतिक रूप से समर्थन किया, जिस कारण पश्चिमी पाकिस्तान ने आरोप लगाया कि भारत उसे तोड़ने की साजिश कर रहा है|
- लोगों को मुक्ति आंदोलन को रोकने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन से पश्चिमी पाकिस्तान को समर्थन मिला था।
- अमेरिकी और चीनी समर्थित पाक के हमलों से अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए, भारत ने सोवियत संघ के साथ 20 साल की शांति और मित्रता की संधि पर हस्ताक्षर किए।
- बहुत कूटनीतिक विचार – विमर्श के बाद भी ठोस परिणाम हासिल नहीं किया जा सका और दिसंबर 1971 में पश्चिमी और पूर्वी दोनों मोर्चे पर पूर्णव्यापी युद्ध छिड़ गया।
- भारत की बाहरी खुफिया एजेंसी R&AW ने इस युद्ध में निर्णायक भूमिका निभाई। इसने मुक्तिवाहिनी का गठन कर इसे संगठित किया(इसमें पाकिस्तान समर्थन और प्रतिरोध की निर्णायक रेखा की अत्याचार से पीड़ित बांग्लादेश की स्थानीय आबादी और बांग्लादेश से संबंधित पाकिस्तानी सेना के पूर्व सैनिक शामिल हैं)।
- “मुक्ति बाहिनी” के रूप में स्थानीय आबादी के समर्थन से भारतीय सेना तेजी से आगे बढ़ी और पाकिस्तानी सैनिकों को 10 दिनों के अंदर आत्मसमर्पण करना पड़ा।
- इस जीत को ‘विजय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इस संकट के समय इंदिरा गांधी ने बहुत साहस और सावधानी के साथ काम किया। यह इंदिरा गाँधी और भारत के लिये सब से गौर्वान्वित क्षण था।
- बांग्लादेश के स्वतंत्र देश के रूप में उदय के साथ, भारत ने एकतरफा युद्ध विराम घोषित कर दिया।
- बाद में 3 जुलाई, 1972 को इंदिरा गांधी और जुल्फिकार भुट्टो के बीच शिमला समझौते पर हस्ताक्षर हुए,जिससे राष्ट्रों के बीच अमन एवं शांति की बहाली हुई|
- इसका उद्देश्य दो राष्ट्रों के मध्य स्थाई शांति, मित्रता और सहयोग स्थापित करना था। इस समझौते के तहत दोनों देशों ने संघर्ष और विवाद को पूरी तरह से समाप्त करने का प्रयास करेंगे, जिसे दोनों देशों ने अतीत में अनुभव किया था। इस समझौते में मार्गदर्शक सिद्धांतों का एक समुच्चय है,जो दोनों देशों के पारस्परिक सहयोग पर आधारित थे|
- एक दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान|
- एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना|
- राजनीतिक स्वतंत्रता|
- संप्रभुता और समानता|
- द्विपक्षीय दृष्टिकोण के माध्यम से शांतिपूर्ण समाधान|
- लोगों के परस्पर संपर्कों पर विशेष ध्यान देने के साथ एक सहकारी संबंध की नींव बनाना।
- जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा को बनाए रखना, जो स्थाई शांति का प्रमुख उपाय है।
1971 के युद्ध के बाद, पाकिस्तानी सेना ने कभी भी भारतीय सेना से प्रत्यक्ष रूप समर्थन और प्रतिरोध की निर्णायक रेखा से युद्ध नहीं किया बल्कि अपनी गुप्त एजेंसियो द्वारा प्रशिक्षित किए गए आतंकवादियों को भेज कर जम्मू कश्मीर और भारत में आतंक फैलाकर दहशत का वातावरण उत्पन्न करने के लिए अप्रत्यक्ष युद्ध प्रारंभ किया ।